सरकारी बांडों का बाजार है बनावटी, काम सिर्फ सरकारी उधारी जुटाना

देश में सरकारी प्रतिभूतियों (बांडों) का बाजार पूरी तरह बनावटी है और सही अर्थों में यह बाजार है ही नहीं। यह कहना क्लियरिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के संस्थापक चेयरमैन डॉ. आर एच पाटिल का। डॉ. पाटिल देश में ऋण बाजार के पुरोधा माने जाते हैं। कॉरपोरेट ऋण पर उनकी अध्यक्षता में बनी समिति दिसंबर 2005 में अपनी रिपोर्ट वित्त मंत्रालय को सौंप चुकी है जिसकी सिफारिशों पर अमल की बात बराबर रिजर्व बैंक व सेबी की तरफ से होती रही है। वैसे देश में कॉरपोरेट ऋण बाजार को विकसित करने की बात पिछले पंद्रह सालों से हो रही है। लेकिन इनका अभी तक कोई ठोस असर सामने नहीं आया है।

डॉ. पाटिल ने केयर रेटिंग्स द्वारा आयोजित पहले ऋण बाजार सम्मेलन (CDMS’10) में अपने बेबाक अंदाज में कहा कि सरकारी प्रतिभूतियों के बाजार का मकसद सिर्फ सरकार के उधार कार्यक्रम को कामयाब  बनाना है। रिजर्व बैंक चूंकि सरकार के ऋण का मैनेजर है और 2003 में एफआरबीएम (फिस्कल रेस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट) एक्ट बनने के बाद वह जारी किए जाते वक्त ही सरकार के बांड नहीं खरीद सकता, इसलिए वह सुनिश्चित करता है कि सरकार को सस्ती दर पूरा जरूरी ऋण मिल जाए। उन्होंने कहा कि अभी हाल में रिजर्व बैंक ने ओएमओ (ओपन मार्केट ऑपरेशन) के तहत बाजार से 48,000 करोड़ रुपए के बांड खरीदने की जो घोषणा की है, उसका मकसद सरकार के नए बांडों के लिए जगह बनाना है।

उनका कहना था कि सरकारी प्रतिभूतियों को बेचनेवाले हैं केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां व संस्थान, जबकि इन्हें मुख्य रूप से खरीदनेवाले बैंक व बीमा कंपनियां हैं जो स्वेच्छा से नहीं, कानूनी बाध्यता के चलते इन्हें खरीदते हैं। जहां निवेशक की स्वतंत्र इच्छा काम नहीं कर रही तो वह बाजार कैसे हो गया? डॉ. पाटिल के मुताबिक जब तक देश का राजकोषीय घाटा काफी कम नहीं हो जाता, तब तक सरकारी बांडों का बाजार सही तरीके से नहीं विकसित हो सकता। अगर हम पूरी सरकारी उधारी की बात करें तो उसमें केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों और तमाम सार्वजनिक उपक्रमों के ऋण को भी जोड़ना पड़ेगा। यह इस समय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 12 फीसदी से ज्यादा है। सरकारी बांडों के बाजार को विकसित करने के लिए इसे जीडीपी के 3 फीसदी तक लाना जरूरी है।

उन्होंने कहा कि कुछ लोग बाजार को विकसित करने के लिए सरकारी बांडों में खुले विदेशी निवेश की वकालत करते हैं। लेकिन ऐसा करना पूरी तरह गलत होगा। उन्होंने ग्रीस का उदाहरण देते हुए बताया कि जब तक अर्थव्यवस्था दुरुस्त थी, विदेशी निवेशक वहां के सरकारी बांडों में जमकर निवेश करते रहे। लेकिन जरा-सी हालत बिगड़ते ही वे भाग खड़े हुए और ग्रीस की सरकार संकट में फंस गई। इसलिए बाजार के मांग की स्थितियां पैदा करने के लिए इसे विदेशियों के लिए खोलना कोई विकल्प नहीं है।

इससे पहले सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर सुबीर गोकर्ण ने सवाल उठाए कि क्या ऋण बाजार के विकास को रोकनेवाली मुश्किलों को हटा देने से व्यावहारिक समाधान निकल आएगा? बाजार में गति लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या सारे मसले हल कर लिए गए तो बाजार में एक या तीन सालों में जान डाली जा सकती है?

सम्मेलन की आयोजक संस्था केयर रेटिंग्स के प्रबंध निदेशक व सीईओ डी आर डोगरा ने पहले ही सत्र में इस तथ्य को रेखांकित किया कि देश में कॉरपोरेट ऋण बाजार का विकास संतोषजनक नहीं रहा है और इस मुद्दे पर गौर करने की जरूरत है। मुश्किल यह है कि इस समस्या का कोई आसान समाधान भी नहीं है। इसके बाद कुल चार सत्रों में वित्तीय व कॉरपोरेट जगत के तमाम दिग्गज लोग इस समस्या के अलग-अलग पहलुओं पर अपनी राय पेश करते रहे।

इनमें फ्यूचर कैपिटल के प्रबंध निदेशक वी वैद्यनाथन, आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल के डिप्टी एमडी निलेश शाह, एल एंड टी के वाई एम देवस्थली, गैमन इंडिया के प्रबंध निदेशक रोहित मोदी, बिड़ला सनलाइफ एएमसी के सीईओ ए बालासुब्रामणियम और बैंक ऑफ अमेरिका, मेरिल लिंच के एमडी जयेश मेहता शामिल थे। इन सभी लोगों ने व्यवहार से जुड़ी नायाब बातें सुनाईं। जैसे, बैंक ऑफ अमेरिका के जयेश मेहता का कहना था कि भारत में अजीब बात यह है कि 1997 से ही एफडी (सावधि जमा) की ब्याज दरें मिबोर (मुंबई इंटरबैंक ऑफर रेट) से ज्यादा चल रही हैं, जबकि सारी दुनिया में एफडी की दर लिबोर (लंदन इंटरबैंक ऑफर रेट) से कम रहती है।

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