संतोष का छलावा

प्रकृति ने जो हमें दिया है, उसे मानकर चलना चाहिए। लेकिन समाज ने जो दिया है, वहां हम मानकर चलते हैं तो दूसरे की मौज हो जाती है। खुश रहने के लिए सतत असंतोष जरूरी है। संतोष तो बस छलावा है।

1 Comment

  1. सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
    तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानते॥
    (अष्टावक्र गीता।१८।५६)

    जो संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं है, खिन्न दिखता है पर खिन्न नहीं है, ऐसे धीर पुरुष की गति वैसा ही कोई जान सकता है।

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