।।मनमोहन सिंह।। संस्‍कृत भारत की आत्‍मा है। संस्‍कृत विश्‍व की प्राचीनतम जीवित भाषाओं में से एक है। लेकिन प्रायः इसके बारे में गलत धारणा है कि यह केवल धार्मिक श्‍लोकों और अनुष्ठानों की ही भाषा है। इस प्रकार की भ्रांति न केवल इस भाषा की महत्‍ता के प्रति अन्‍याय है, बल्कि इस बात का भी प्रमाण है कि हम कौटिल्य, चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्‍त व भास्‍कराचार्य जैसे अनेक लेखकों, विचारकों, ऋषि-मुनियों और वैज्ञानिकों के कार्य केऔरऔर भी

।।प्रणव मुखर्जी।। भारत आज उस मुकाम पर है जहां कुछ भी करना या पाना असंभव नहीं लगता। साथ ही बहुत सारी चुनौतियां भी हमारे सामने हैं जिन्हें सुलझाकर ही हमने इस दशक के अंत तक विकसित देश के रूप में उभर सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी चुनौती है युवा भारत की बढ़ती अपेक्षाएं। यह आबादी का वो हिस्सा है जो बेचैन है। फिर भी डटा हुआ है और सामने आनेवाले हर अवसर को पकड़ने को तैयार है।औरऔर भी

अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को कायदे से कर्ज मिलता रहे, इसके लिए रिजर्व बैंक 1980 के दशक के आखिर-आखिर तक बैंकों द्वारा दिए जानेवाले उधार की मात्रा से लेकर उसकी ब्याज दर तक पर कसकर नियंत्रण रखता था। 1990 में दशक के शुरुआती सालों में वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के तहत वाणिज्यक बैंकों की उधार दरों से नियंत्रण हटाने के लिए तमाम कदम उठाए गए। पहला, अप्रैल 1993 में तय ब्याज दरों पर कितना उधार दिया जानाऔरऔर भी

वित्तीय समावेश क्यों महत्वपूर्ण है? सीधी-सी बात कि यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि यह बराबरी वाले विकास को लाने और टिकाए रखने की आवश्यक शर्त है। ऐसे बहुत ही कम दृष्टांत हैं जब कोई अर्थव्यवस्था कृषि प्रणाली से निकलकर उत्तर-औद्योगिक आधुनिक समाज तक व्यापक आधारवाले वित्तीय समावेश के बिना पहुंची हो। हम सभी अपने निजी अनुभव से जानते हैं कि आर्थिक अवसरों का गहरा रिश्ता वित्तीय पहुंच से होता है। ऐसी पहुंच खासकर गरीबों के लिए बहुतऔरऔर भी

किसी भी पैमाने से देखें तो देश में अभी चल रही मुद्रास्फीति की दर काफी ज्यादा है। यह चिंता की बात है क्योंकि इससे एक नहीं, कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। खासकर आबादी के बड़े हिस्से के लिए जिसके पास इसके असर को काटने के लिए कोई उपाय नहीं है। पहली बात कि मुद्रास्फीति आपके पास जो धन है, उसकी क्रय क्षमता को कम कर देती है। इससे बंधी-बंधाई आय और पेंशनभोगी लोगों का जीवनऔरऔर भी

पिछले दो सालों से दुनिया भर की सरकारों और केंद्रीय बैंकों के लिए मुसीबत बना संकट अब लगभग मिट चुका है। अब हमें उन चुनौतियों पर ध्यान देने की जरूरत है जिनसे हमें आगे के सालों में जूझना है। तय-सी बात है कि औद्योगिक देश अब धीमे विकास के दौर में प्रवेश कर रहे हैं। दूसरी तरफ भारत लगातार मजबूत हो रहा है और भविष्य में अच्छी प्रगति की संभावना है। हमारी घरेलू बचत दर बढ़कर जीडीपीऔरऔर भी

इला पटनायक मुद्रास्फीति का बढ़कर दहाई अंक में पहुंच जाना चिंता का मसला है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित यह दर अगले कुछ हफ्तों तक और बढ़ेगी। लेकिन उसके बाद यह घटेगी। हमारे नीति-नियामकों को ब्याज दर बढ़ाने से पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। वैसे रिजर्व बैंक के नीतिगत उपाय अभी तक कमोबेश दुरुस्त ही रहे हैं। मुद्रास्फीति इसलिए भी चिंता का मसला है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) बढ़ रहा है। महीने सेऔरऔर भी

डॉ. डी सुब्बाराव दुनिया का शायद ही कोई देश होगा जिसकी अर्थव्यवस्था वित्तीय बाजार की व्यापक पहुंच व विस्तार के बिना मजबूत और विकसित हुई हो। और, वित्तीय बाजार का ऐसा विस्तार तभी संभव है जब घर-परिवार व उसके सदस्य वित्तीय रूप से साक्षर हों और बचत से लेकर उधार लेने व निवेश करने के बारे में पूरी जानकारी के साथ सोच-समझकर फैसला कर सकें। यहां यह भी कहा जा सकता है कि अगर अमेरिका के लोगऔरऔर भी