बेगम के चक्कर में डूबती है लक्ष्मी

laxmi and begumआपने भी देखा होगा। मैंने भी देखा है। सड़क के किनारे, गली के नुक्कड़ पर, बस अड्डों के पास, ट्रेन के डिब्बों में कभी-कभी एक आदमी नीचे बैठा ताश के छह पत्तों को उल्टी तरफ से दो-दो की जोडियों में खटाखट तीन सेट में रखता जाता है। आसपास कम से कम तीन लोग खड़े रहते हैं जो उसे घेरकर दांव लगाते हैं। दांव यह होता है कि जिसके बताए पत्ते के पलटने पर बेगम निकलेगी, उसके सौ रुपए दो सौ हो जाएंगे। वह जितना भी लगाएगा, रकम उसकी दोगुनी हो जाएगी।

आप कुछ देर खड़े-खड़े देखते हैं। पत्ते रखनेवाले शख्स के हाथ की चाल-ढाल समझते हैं। मन ही मन आजमाते हैं। क्या बात है! आप तो जो पत्ता चुन रहे हैं, वह लगातार तीन-चार बार से बेगम निकल रहा है। सोचते हैं कि क्या हर्ज है। घर या दफ्तर पहुंचने से पहले सौ के दो सौ कर लेते हैं। इस बीच पहले से दांव लगा रहे तीन लोग भी आपको उकसाते हैं। आप दांव लगा देते हैं। पहली बार में धक्का। डूब गए सौ रुपए। फिर उस सौ रुपए को निकालने के लिए आप फिर आजमाते हैं। और, आखिर में चार-पांच सौ रुपए की लक्ष्मी गंवाकर चले जाते हैं। खिलानेवाले से कभी-कभी झगड़ा-झड़प भी कर लेते हैं। लेकिन पता चलता है कि पहले से खेल रहे तीन लोग तो उससे मिले हुए थे। ज्यादा चूं-चपड़ करने पर वे आपको सही कर देते हैं।

मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है। यही कोई 12-13 साल का था। स्कूल से जाड़ों की छुट्टियों में नैनीताल से घर आ रहा था। लखनऊ से बदलकर फैजाबाद की ट्रेन पकड़ी थी। ऊपर की बर्थ पर जाकर लेट गया। थोड़ी देर में देखा तो नीचे छह पत्तियों का यही खेल चल रहा था। मैंने बराबर आजमाया कि मैं बेगम को सही पकड़ रहा हूं। उस समय 50-50 करके मैं 150 रुपए हार गया था। जिंदगी भर का सबक मिल गया। लेकिन अक्सर हम लोग शेयर बाजार में इसी तरह बेगम पकड़कर लक्ष्मी जुटाने की कोशिश में लगे रहते हैं। बेगम तो मिलती नहीं, ऊपर से लक्ष्मी जरूर निकल लेती है।

‘हम’ इसलिए कह रहा हूं कि इसमें आप ही नहीं, मैं भी शामिल हूं। हफ्ते भर पहले 13 अगस्त को जब चर्चा-ए-खास में सुपर टैनरी और राज ऑयल का उल्लेख हुआ तो सोचा कि क्यों न खुद भी लगा दूं। महीने भर में थोड़ी रकम बन जाएगी। दूसरों की राय को दोष क्या दूं, लगाया तो मैंने ही। हफ्ते भर में यह दोनों ही शेयर नीचे चले गए हैं। देखकर दुख होता है। हो सकता है कि पंद्रह-बीस दिन में ये बढ़ जाएं क्योंकि मूल कारकों के आधार पर ये दोनों ही कमजोर कंपनियां नहीं हैं। फायदा होगा तो मकान की किश्त के लिए इन्हें महीने के अंत से पहले बेच दूंगा। नहीं तो तब तक रखे रहूंगा जब तक कम से कम इनसे बैंक एफडी से ज्यादा फायदा नहीं मिल जाता।

इस सारी बात का सार यह है कि शेयर बाजार में बहुत से ऑपरेटर ताश के छह हफ्तों का खेल करते हैं। टिप्स के धंधे का आधार यही है। हम बेगम के चक्कर में लक्ष्मी न गंवा बैठे, यह जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ हमारी है। हमें समझना चाहिए कि यह पूंजी का बाजार है। यहां से कंपनियां अपने लिए पूंजी जुटाती है। आईपीओ या एफपीओ के जरिए पब्लिक इश्यू में मिली रकम वे निर्धारित परियोजनाओं में लगाती हैं ताकि उनका कारोबार बढ़ सके। बाद में राइट इश्यू के जरिए भी वे अपने कामों के लिए धन जुटाती है।

कंपनियां प्राथमिक या प्राइमरी बाजार के जरिए हमें अपने शेयर जारी करती हैं। हम डीमैट खातों में एक एंट्री के लिए कंपनी को असली नोट देते हैं। वो नोट वह खर्च करती है और हमारे पास डीमैट खाते में दर्ज रहता है कि फलांनी कंपनी के इतने शेयर हमारे पास हैं। हम भी जब इन्हें चाहें सेकेंडरी मार्केट या शेयर बाजार में बेचकर दोबारा अपने नोट हासिल कर सकते हैं। लेकिन नोट पहले से ज्यादा मिलेंगे या कम, यह कंपनी के कामकाज के साथ ही उसकी साख पर निर्भर करता है। ध्यान रखें कि शेयर बाजार से हमारे द्वारा कंपनी के शेयर खरीदने से सीधे-सीधे कंपनी को कुछ नहीं मिलता। हमने घाटा उठाया तो खरीदनेवाले को फायदा हुआ और हमारा फायदा किसी दूसरे के खाते से आता है। हालांकि ये जीरो सम गेम नहीं है।

सवाल उठता है कि इससे कंपनी को क्या मिलता है? इससे सेकेंडरी बाजार में कंपनी की साख बनी रहती है। साख से उसके शेयर पर प्रीमियम बढ़ता रहता है। मान लीजिए किसी कंपनी ने प्राइमरी मार्केंट में अपना आईपीओ 50 रुपए पर जारी किया था और साल भर बाद बाजार में उसका शेयर 120 रुपए पर चल रहा हो तो वह आराम से अपना एफपीओ 100 रुपए पर ला सकती है। कंपनी को अपने उतने ही शेयरों से अब पहले से दोगुनी रकम मिल जाती है। अच्छी साख या शेयर के भाव से कंपनी के लिए बाजार से पूंजी जुटाना सस्ता हो जाता है। नहीं तो देश के भीतर या बाहर से लिया गया कर्ज तो कर्ज ही होता है, जिस पर उसे नियमित ब्याज चुकाना होता है।

शेयर में ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती। लाभांश दिया तो ठीक, नहीं दिया तो ठीक, कोई गर्दन नहीं पकड़नेवाला है। कंपनी गड़बड़ाई तो शेयरधारक की पूंजी उड़ जाती है। उसे लौटाने की मांग भी आप कंपनी से नहीं कर सकते। सत्यम से बड़ा इसका क्या उदाहरण हो सकता है। यही आजादी कंपनियों को पूंजी बाजार के जरिए हमारे-आप जैसे आम निवेशकों के पास ले आती है। अगर किसी कंपनी के शेयरों में निवेश करते हैं तो हम प्रवर्तक के सपने को, नजरिए को अंगीकार करते हैं, उसके जोखिम में हिस्सेदार बनते हैं। प्रवर्तक का जोखिम सध गया, वह कामयाब हो गया तो हमारे भी सौ के दो सौ, चार सौ हो जाते हैं। नहीं तो ठन-ठन गोपाल। जोखिम के कालिया नाग को नाथने के लिए बालकृष्ण की कला जरूरी है। और, हम कोई अवतार तो हैं नहीं, इसलिए यह कला हमें निरंतर अभ्यास और अध्ययन से हासिल करनी पड़ती है।

1 Comment

  1. भाषाई दिवार के कारण हम हिन्दी भाषीयों में जो वित्तिय अपुर्णता आयी थी, उसे आपकी भाषा उस उतनी ही प्रखर ्पकड बेहद संजीदापन ला देती है………धन्यवाद

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