दाल नहीं, भांटे पर भिडंत

अनिल रघुराज

हमारे यहां बैंगन को भांटा कहते हैं। इस भांटे की स्थिति यह है कि बचपन में किसी को चिढ़ाने के लिए हम लोग कहते थे – आलू भांटा की तरकारी, नाचैं रमेशवा की महतारी। रमेशवा की जगह इसमें, नाम किसी का भी – जयराम, मनमोहन, पवार, सिब्ब्ल या सोनिया रखा जा सकता था। मेरे बाबूजी मुंबई (तब की बंबई) में एक कपड़े की दुकान पर काम करने आए। उन्हें अक्सर हर दिन भांटे की तरकारी खाने को मिलती थी। वो कुछ ही महीनों से इससे इतने आजिज आ गए कि आजी को खत लिखा कि माई को मालूम हो कि अगर मुझे जिंदा देखना चाहती हो तो मुझे वापस बुला लो। लेकिन पिछले कई महीनों से हालत यह रही है कि प्रधानमंत्री से लेकर यूपीए सरकार के आला मंत्री इसी भांटे पर भिड़े रहे।

दलील दी गई कि भांटे में इतने कीड़े लगते हैं कि उसे बचाने के लिए बीटी बैगन को अपनाना जरूरी है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को एनजीओ वालों से इतना लताड़ा कि उन्होंने बीटी बैगन को अपनाने का ख्याल अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया। लेकिन बाकी मंत्री इतने बेचैन हैं कि कभी इसे देश की खाद्य सुरक्षा से जोड़कर पेश कर रहे हैं तो कभी कह रहे हैं कि वैज्ञानिक मसले अवाम की राय से तय नहीं किए जा सकते। अपनी साफगोई के लिए जाने जानेवाले अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने तो हद कर दी है। कुछ नहीं मिला तो बताने लगा कि हमारी जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी की हरी झंडी को जयराम रमेश ने अनदेखा कर दिया, उसी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर फिलीपींस अपने यहां बीटी बैगन को अपनाने जा रहा है। समझ में नहीं आता कि महज एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसैंटो के लिए ये लोग इतना क्यों मरे जा रहे हैं।

बीटी बैगन के बहाने चाहें मनमोहन सिंह बोलें या शरद पवार, फिलहाल देश के अवाम का हित या खाद्य सुरक्षा से इनका सरोकार नहीं है क्योंकि बैंगन इतना जरूरी आहार नहीं है कि इसका उत्पादन बढ़ाना निहायत जरूरी हो गया है। वैसे भी बैगन की हजारों किस्में हमारे यहां विभिन्न राज्यों में उगाई जाती हैं, जिन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अगर सचमुच इन्हें अवाम की चिंता होती तो आज ये लोग देश में दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उसमें जीएम तकनीक अपनाने की वकालत और प्रयास करते। कारण, देश में दालों का उत्पादन पिछले 20 सालों से एकदम ठहरा हुआ है।

हम 20 साल पहले करीब 145 लाख टन दाल पैदा कर रहे थे। साल 2007 में यह उत्पादन 147.6 लाख टन का रहा। 2008 में यह एक लाख टन घटकर 146.6 लाख टन पर आ गया। साल 2009 में कितना उत्पादन रहा है, इसका पता कुछ महीनों में चलेगा क्योंकि खेतों में करीब साल भर खड़ी रहनेवाली अरहर की फसल अभी कट रही है, जबकि खरीफ में पैदा होनेवाले चने और मटर की फसल भी अभी खलिहानों और गोदामों में पहुंच रही है। सवाल उठता है कि उत्पादन में महज एक लाख की कमी दालों के दाम में इतनी आग क्यों लगा गई? बता दें कि अपने यहां दालों में फ्यूचर ट्रेडिंग की इजाजत नहीं है। इसलिए वित्तीय व आर्थिक रूप से निरक्षर हमारे लफ्फाज नेता इस पर तोहमत नहीं मढ़ सकते।

जवाब बड़ा साफ है कि हम भारतीयों के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा और पारंपरिक स्रोत दाल है। शाकाहारी तो छोड़िए, मांसाहारी लोग भी दिन में एक बार दाल जरूर खाते हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के मुताबिक पिछले दस सालों में देश में प्रति व्यक्ति आय 6 फीसदी सालाना की दर से बढ़ी है। इसलिए सड़क के किनारे गुजारा करनेवाले बेबस भारतीय भले ही मुर्गें या बकरे के पैर व फेंकी गई अंतड़ियां पकाकर प्रोटीन की जरूरत पूरी करते हों, लेकिन नरेगा से लेकर मेहनत-मजूरी कर पेट भरनेवाला गरीब भी आलू, भांटा और प्याज जैसी सब्जियों की जगह दाल को अपने जरूरी आहार में शामिल कर चुका है। यानी, इस शाकाहारी मुल्क में दालों में मांग बढ़ रही है, जबकि उत्पादन ठहरा हुआ है।

उद्योग संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 20 सालों में दालों का उत्पादन महज 1.4 फीसदी बढ़ा है, जबकि आबादी 1.8 फीसदी बढ़ गई है। इसलिए प्रति व्यक्ति दालों की औसत सालाना उपलब्धता 16 किलो से घटकर 12.7 किलो रह गई है। बता दें कि आजादी के चार साल बाद 1951 में देश में दाल की प्रति व्यक्ति सालाना उपलब्धता 21 किलो थी। देश में दालों की मौजूदा मांग करीब 200 लाख टन है। इसलिए हमें हर साल 30 से 35 लाख टन दाल आयात करनी पड़ती है। यह दालें हम म्यानमार, कनाडा, तंजानिया और यूक्रेन से मंगाते हैं। इनमें में भी म्यानमार को छोड़कर तुअर या अरहर की दाल कहीं नहीं पैदा की जाती। ऊपर से इन देशों में दूसरी दालों का भी उत्पादन घट रहा है क्योंकि वहां के किसान अंतरराष्ट्रीय कीमतों के मद्देनजर अब मक्के और तिलहन की खेती पर ज्यादा जोर देने लगे हैं।

अपने यहां किसान अरहर की खेती करने से डरते हैं क्योंकि एक तो इसमें खेत करीब साल भर के फंस जाता है। दूसरे ठंड में जरा-सा पाला पड़ते ही इसके फूल कुंभला जाते हैं। नतीजतन पैदावार का कोई भरोसा नहीं रहता। अगर अरहर के कीटरोधी या पालारोधी बीज बने भी होंगे तो किसानों तक पहुंचते नहीं। इसलिए बाजार में अरहर में लगी आग के बावजूद किसान इसकी खेती करने के लिए प्रेरित नहीं होते। फ्यूचर ट्रेडिंग की इजाजत देना अभी बेमतलब होगा क्योंकि इसके सिग्नल किसानों तक नहीं पहुंचते। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह समर्थन मूल्य से ज्यादा शोध व अनुसंधान (आर एंड डी) पर ध्यान दें। साथ ही दालों की उत्पादकता व उपलब्धता बढ़ाने के लिए कोई टेक्नोलॉजी मिशन बनाया जाए। आखिर हम आयात पर कब तक निर्भर रह सकते हैं?

इस बीच कृषि मंत्री शरद पवार कह चुके हैं कि इस साल भी दालों का उत्पादन कम रहेगा क्योंकि पिछला मानसून खराब रहा है और दालें वर्षा आधारित इलाकों में बोई जाती हैं। दाल आयातक संघ (पल्सेज इम्पोर्टर्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष के सी भरतिया का भी मानना है कि आनेवाले महीनों में दालों के दाम में ज्यादा कमी आने की गुंजाइश नहीं है क्योंकि एक तो दालों के आयात की लागत घरेलू कीमतों से अधिक है और दूसरे इनकी लोकल सप्लाई लगभग न के बराबर रह गई है।

2 Comments

  1. दाल-दरिद्रता का प्रमुख कारण है ब्लू बुल। जिसे वनरोज, घड़रोज या नीलगाय भी कहते हैं। वे खेत में कुछ बचने ही नहीं देते। सब जानते हैं कि यह गौ-माता नहीं है लेकिन मारने की इजाजत नहीं मिलती मिल भी जाए तो सामान्य लाठीधारी किसान (भले ही उसके घर में एक देशी तमंचा भी हो) इस सरकश जानवर को मार नहीं पाएगा। सरकारें वोट के डर से चुप रहती हैं। मायावती की सरकार यूपी में इन्हें बधिया करने पर करोड़ों खर्च करने जा रही है। जो सरकारी कर्मचारी (मुंगेरी लाल) साठ साल में सड़क से सुअर और आवारा जानवर नहीं पकड़ पाए नीलगाया पकड़ेंगे?
    दूसरा व्यावहारिक कारण है सरकारी एजेंसियों द्वारा उन्नतशील बीज के नाम बाजार में बिकती साधारण दाल की पैकेट बंद कर सप्लाई और अवैध कमाई।
    सुना है केद्र सरकार कोई दाल-मिशन भी चलाती है।

  2. निश्चित रूप से भांटे पर बेमानी बवाल हो रहा है। इतना ही नहीं आजकल बाजार को पता नहीं क्या हुआ है, दिल्ली में यह २० रुपये किलो से नीचे आ ही नहीं रहा है। लगता है अब कुछ ऐसी गणित लग रही है कि महंगाई की वजह से इसके जीएम उत्पादन की मांग एक बार फिर करने की जमीन तैयार की जा रही है।

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